लोक साहित्य में बाल कहानियों की परम्परा का विश्लेषण और विवेचन

PAPER ID: IJIM/Vol. 9 (X) /February/38-43 /6

AUTHOR:  विकास कुमार

TITLE : लोक साहित्य में बाल कहानियों की परम्परा का विश्लेषण और विवेचन

ABSTRACT: लोक साहित्य किसी भी समाज की सामूहिक चेतना, सांस्कृतिक स्मृति और परंपरागत ज्ञान का जीवंत दस्तावेज होता है। यह न केवल मनोरंजन का माध्यम है, बल्कि जीवन-मूल्यों, नैतिक शिक्षाओं, सामाजिक आचरण और जीवन-दृष्टि को पीढ़ी दर पीढ़ी संप्रेषित करने का एक सशक्त उपकरण भी है। मौलिक रूप से मौखिक परंपरा से जन्मा लोक साहित्य शहरी और शिक्षित वर्ग की अपेक्षा ग्रामीण, जनजातीय और सामान्य जनसमूह के बीच अधिक प्रचलित रहा है। यही कारण है कि यह साहित्य सहज, स्वाभाविक, संवादात्मक और संवेदनशील होता है, जो जनमानस के अनुभवों से जन्म लेता है और उनके जीवन के विविध पक्षों को अभिव्यक्त करता है।

बाल साहित्य की बात करें तो यह आधुनिक युग में एक पृथक विधा के रूप में विकसित हुआ है, किन्तु इसकी जड़ें कहीं गहरी लोक साहित्य में निहित हैं। बच्चों के मनोरंजन और शिक्षण के लिए गढ़ी गई लोक कहानियाँ एक समृद्ध परंपरा का निर्माण करती हैं, जिनमें परीकथाएँ, पशु-पक्षी आधारित किस्से, लोकनायकों की कहानियाँ, धार्मिक आख्यान, रीति-नीति की कथाएँ और प्राकृतिक घटनाओं से संबंधित गाथाएँ शामिल हैं। प्रारंभिक बालवस्था में बच्चों की सोच कल्पनात्मक, प्रश्नोन्मुखी और जिज्ञासु होती है। ऐसे में लोक कहानियाँ न केवल उन्हें मनोरंजन प्रदान करती हैं, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से नैतिक मूल्यों, जीवन-कौशल, और सामाजिक व्यवहार की शिक्षा भी देती हैं। ये कहानियाँ बच्चों के मन में अच्छाई-बुराई, न्याय-अन्याय, सच्चाई-झूठ और परिश्रम-प्रपंच के भेद को स्पष्ट करने में सहायक होती हैं। साथ ही, इन कहानियों के माध्यम से भाषा, बोली, रीति-रिवाज और लोक आस्थाओं का भी संचरण होता है। बाल मानस की बुनावट को समझते हुए जब लोक जीवन के अनुभवों को प्रतीकात्मक रूप से प्रस्तुत किया जाता है, तो वह एक रोचक कथा में परिवर्तित हो जाता है। दादी-नानी की कहानियाँ, गाँव की चौपालों में सुनाए जाने वाले किस्से, त्योहारों और मेलों में बोली जाने वाली गाथाएँ—इन सबमें बच्चों को अपने परिवेश के प्रति समझ, अपनत्व और जिज्ञासा का भाव मिलता है। यह शोध-पत्र लोक साहित्य में निहित बाल कहानियों की परंपरा का ऐतिहासिक और साहित्यिक विश्लेषण करता है, तथा आधुनिक परिप्रेक्ष्य में उनकी प्रासंगिकता को रेखांकित करता है।

KEYWORDS: बाल कहानियाँ, लोक साहित्य, बाल विकास, हिन्दी साहित्य, मौखिक परंपरा, नैतिक शिक्षा

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