व्यक्तित्व के समग्र विकास में कर्मयोग की भूमिका (उपनिषद् परम्परा के विशेष सन्दर्भ में)

PAPER ID: IJIM/Vol. 9 (X) /February/9-13/2

AUTHOR: डॉ॰ गजानन्द वानखेड़े[i]  नवीन प्रसाद नौटियाल[ii] (Dr. Gajanand Wankhede and Naveen Prasad Nautiyal)

TITLE : व्यक्तित्व के समग्र विकास में कर्मयोग की भूमिका (उपनिषद् परम्परा के विशेष सन्दर्भ में) (Vyaktitav ke samagr vikas mai bhumika )

ABSTRACT:

व्यक्तित्व के विकास में कर्मयोग की विशेष भूमिका है। कर्मयोग शब्द कर्म तथा योग दो शब्दों से बना है। कर्म शब्द संस्कृत का शब्द है, जो कृ धातु से बना है, जिसका अर्थ है- करना। सामान्य रुप से गीता में इसी अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग हुआ है। यह जीवन के प्रत्येक कर्म को अपने अन्दर सम्मिलित कर लेता है। गीता के अनुसार, कायिक, वाचिक एवं मानसिक रूप से मनुष्य जो भी करता है, वह कर्म है।

गीता में निष्काम कर्म को कर्मयोग कहा है। आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होना समता या समभाव है।   यह समत्व रूप ही कर्मों में कुशलता है। यही कर्मबन्धन से छूटने का उपाय है। गीता के द्वितीय अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है- हे धनंजय, तू आसक्ति से रहित होकर कर्म का पालन कर। अतः कर्म करने में सफलता मिले या असफलता, दोनों ही स्थिति में समता की जो मनोवृत्ति है, वही ‘कर्मयोग’ है। व्यक्ति अपने जीवन में जैसा भी कर्म करता है, उसी के अनुसार उसे भविष्य का जीवन मिलता है। प्रस्तुत शोधपत्र में व्यक्तित्व के विकास में कर्मयोग की भूमिका को ही प्रतिपादित किया गया है।

KEYWORDS: व्यक्तित्व विकास, योग, निष्काम कर्म, कर्मयोग, कर्म-बन्धन, गीता, उपनिषद्, योगदर्शन।

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